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छुआछूत का सिलसिला है सदियों पुराना

वैसे आज की तारीख में यह एक बहुचर्चित कार्यक्रम भी है। जिसमें दिखाये जाने वाले सभी विषय हमारे समाज के लिए कोई नये नहीं है। किन्तु जिस तरह इन सभी विषयों को इस कार्यक्रम के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। वह यक़ीनन काबिले तारीफ़ है। क्यूंकि कुछ देर के लिए ही सही वह सभी विषय हमें कहीं न कहीं सोचने पर विवश करने में सक्षम सिद्ध हो रहे हैं और हमारे ऊपर प्रभाव भी डाल रहे है, कि हम उन विषयों पर सामूहिक रूप से एक बार फिर सोचें विचार करें। लेकिन यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या सिर्फ कुछ देर विचार कर लेने से या सोच लेने से इन सब दिखायी गई समस्याओं का समाधान हो सकता है ? नहीं बल्कि इन विषयों पर हम सभी को गंभीरता से सोचना होगा अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और इतना ही नहीं हम जो समाधान निकालें उस पर हमें खुद भी अमल करना होगा। तभी शायद हम किसी एक विषय की समस्या पर पूरी तरह काबू पा सकेंगे, वरना नहीं। ऐसा मेरा मानना है। वैसे तो इस कार्यक्रम पर पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस कार्यक्रम ने ना सिर्फ आम जनता को, बल्कि लेखकों को भी लिखने के लिए बहुत से विषय दे दिये है। इसलिए में इस कार्यक्रम की बहुत ज्यादा चर्चा न करते हुए सीधा मुद्दे पर आना चाहूंगी।

हालांकी मेरा आज का विषय भी इस ही कार्यक्रम से जुड़ा है और वह है छुआछूत का मामला जिसके तहत में पूरे कार्यक्रम का विवरण नहीं दूंगी। मैं केवल बात करूंगी उस बात पर जो इस कार्यक्रम के अंतर्गत इस छुआछूत वाले भाग के अंत में कही गयी थी। लेकिन बात शुरू करने से पहले मैं यहां कुछ और अहम बातों का भी जि़क्र करना चाहूंगी। वो यह कि यह छुआछूत की समस्या हमारे समाज में ना जाने कितने सालों पुरानी है।

राम जी के समय से लेकर अब तक यह समस्या हमारे समाज में अब न केवल समस्या के रूप में, बल्कि एक परंपरा के रूप में आज भी विद्यमान है। जो कि आज एक प्रथा बन चुकी है, एक ऐसी कुप्रथा जो सदियों से चली आ रही है। जब मैंने वो सब सोचा तो मेरा तो दिमाग ही घूम गया हो सकता है। उस ही वजह से शायद आपको मेरा यह आलेख थोड़ा उलझा हुआ भी लगे। एक तरफ तो भगवान राम से शवरी के झूठे बेर खाकर यह भेद वहीं खत्म कर दिया और दूसरी बार एक धोबी के कहने में आकर माता सीता को घर से बेघर कर जंगलों में भटकने के लिए विवश कर दिया था। वह भी तब जब वह गर्भवती थी। क्या उस वक्त आपको लगता है कि यह बात यदि उस धोबी की जगह किसी सभ्य या ऊंची जाति के व्यक्ति ने कही होती, तब भी भगवान राम ऐसा ही करते ?

खैर वह भगवान थे और वो भी मर्यादा पुरुषोतम शायद इसलिए ऐसा करने पर विवश थे। लेकिन जन्म तो उन्होने भी एक आम इंसान के रूप में ही लिया था। इसका मतलब हमें उन्हें एक आम इंसान के रूप में देखते हुए ही बात करनी चाहिए। मगर शायद यह बात बहुत से धर्म के ठेकेदारों को हज़म नहीं होगी। वैसे भी बात यहाँ इंसान और भगवान की नहीं छू अछूत की है। जो तब भी थी और आज भी है और इस सब में मुझे तो घौर आश्चर्य इस बात पर होता है कि यह छूत-पाक की मानसिकता सबसे ज्यादा हमारे पढे लिखे और सभ्य समाज के उच्च वर्ग में ही पायी जाती है। निम्न वर्ग में नहीं, ऐसा तो नहीं है। मगर हां तुलनात्म्क दृष्टि से देखा जाये तो बहुत कम है और लोग इस मानसिकता के चलते इस हद तक गिर जाते हैं, कि इंसान कहलाने लायक नहीं बचते। क्योंकि यह घिनौनी और संकीर्ण मानसिकता न केवल बड़े व्यक्तियों को बल्कि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को भी इस क़दर मानसिक आहात पहुँचती है कि उन्हें बहारी दुनिया से कटना ज्यादा पसंद आता है। बजाय उसे जीने के, उसे देखने के, क्योंकि या तो लोग उन्हें घड़ी-घड़ी पूरे समाज के सामने अपमानित करते है या उनकी मजबूरी का फायदा उठाते है।

उनको समान अधिकार नहीं दिया जाता, वह किसी के साथ उठ बैठ नहीं सकते, एक नल से पानी नहीं पी सकते, एक मंदिर में भगवान की आराधना नहीं कर सकते और यदि किसी तरह मंदिर में जाने की इजाज़त मिल भी जाये तो एक ही दरवाजे से मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। उन्हें एकसा प्रसाद तक नहीं मिल सकता क्यूं? क्योंकि वह दलित है? लेकिन जरूरत के वक्त हम जैसे तथाकथित उच्च श्रेणी में आने वाले लोगों को इन्हीं दलितों की आवश्यकता पड़ती है। फिर चाहे अपने घरों में काम करवाने के लिए कामवाली बाई रखना हो, या साफ सफ़ाई करवाना हो, जरूरत इन्हीं ही की पड़ती है। तब कहाँ गुम हो जाता है, हमारा यह भेद भाव और सिर्फ यही नहीं बल्कि कुछ अयीयाश क़िस्म के उच्च वर्ग में गिने जाने वाले लोगों के लिए तो इस निम्न समाज की लड़कियाँ उनकी शारीरिक भूख मिटाने का समाधान बन सकती है। उस वक्त वो उनका बिस्तर बाँट सकती है। मगर उसके अलावा उनके घर के बिस्तर पर साधारण रूप से बैठ भी नहीं सकती। बहू बेटी बनना, बनाना तो दूर की बात है क्यूं ।

वैसे देखा जाये तो इस समस्या का शायद कोई समाधान है ही नहीं और शायद है भी, वह है यह विजातीय विवाह, लेकिन जिस तरह हर एक चीज़ के कुछ फ़ायदे होते है, ठीक उसी तरह कुछ नुक़सान भी होते हैं। इस विषय में मुझे ऐसा लगता है कि यदि ऐसा हुआ अर्थात विजातीय विवाह हुए तो किसी भी इंसान का कोई ईमान धर्म नहीं बचेगा। सभी अपनी मर्जी के मालिक बन जाएंगे और उसका गलत फायदा उठाया जाना शुरू हो जायेगा। क्योंकि मेरा ऐसा मानना है और मुझे ऐसा लगता भी है कि एक इंसान को सही मार्गदर्शन दिखाने और उस पर उचित व्यवहार करते हुए चलने कि प्रेरणा भी उसे अपने धर्म से ही मिलती है और धर्म किसी भी बात एवं कार्य के प्रति इंसान को आस्था और विश्वास का पाठ सिखाता है। जो एक समझदार और सभ्य इंसान के लिए बेहद जरूर है।

मगर अफ़सोस इस बात का है कि हमारे समाज की यह विडम्बना है, या यूं कहिए की यह दुर्भाग्य है कि यहां न सिर्फ आज से बल्कि, सदियों पहले से हम धर्म के नाम पर लड़ते और मरते मारते चले आ रहे। क्योंकि शायद हम में से किसी ने आज तक धर्म की सही परिभाषा समझने कि कोशिश ही नहीं की, क्योंकि धर्म कोई भी हो, वह कभी कोई गलत शिक्षा नहीं देता। इसलिए शायद हमारे बुज़ुर्गों ने बहुत सी बातों को धर्म से जोड़कर ही हमारे सामने रखा। ताकि हम धर्म के नाम पर ही सही, कम-से-कम उन मूलभूत चीजों का पालन तो करेंगे। मगर उन्हें भी कहाँ पता था कि पालन करने के चक्कर में लोग कट्टर पंथी बन जाएंगे और एक इंसान दूसरे इंसान को इंसान समझना ही छोड़ देगा। जिसके चलते संवेदनाओं का नशा हो जायेगा जैसे कि आज हो रहा है। आज इंसान के अंदर कि सभी समवेदनायें लगभग मर चुकी हैं। आज हर कोई केवल अपने बारे में सोचता है। सब स्वार्थी है, किसी को किसी दूसरे कि फिक्र नहीं है इसलिए आज देश पर भ्रष्टाचार का राज चलता है।

जिसके कारण देश चालने वालों का नज़रिया देश के प्रति देशप्रेम न रहकर स्वार्थ बन गया है और उनकी सोच ऐसी की देश जाये भाड़ में उनकी बला से उन्हें तो केवल अपनी जेबें भरने से मतलब है। अब हम आते हैं मुद्दे की बात पर जो इस कार्यक्रम के अंत में आमिर ने कही थी कि यदि देखा जाये तो ऐसी मानसिकता के जिम्मेदार कहीं न कहीं हम खुद ही हैं क्यूंकि आज हम अपने बच्चों को बचपन से ही झूठ बोलना और भेद भाव करना खुद ही तो सिखाते है और आगे चलकर जब वही बच्चा कोई भ्रष्ट काम करता है, तब बजाय हम खुद अपने अंदर झांकने के उस बच्चे पर आरोप प्रत्यारोप की वर्षा करते हैं। दोषारोपण करते है। मगर यह नहीं देख पाते कि हमने ही उसे यह कहा था कभी, कि अरे बेटा फलाने अंकल आये तो कह देना मम्मी पापा घर में नहीं है, या फिर अरे इसके साथ मत खेलो वह भंगी का बेटा है या चमार का बेटा है। यहाँ बहुत से लोग दिखावा करने के चक्कर में अपने बच्चों को उन दलितों के बच्चों के साथ खेलने की मजूरी तो दे-देते है। मगर उनके साथ खाना-पीना या उनके घर जाने की अनुमति नहीं दे पाते। क्योंकि वो लोग भले ही कितने भी साफ सुथरे क्यूँ न हो, मगर हमारी मानसिकता ऐसी बनी हुई है कि वह लोग हमेशा हमें खुद की तुलना में गंदे ही नज़र आते है।

क्या है इस समस्या का वाकई कोई निदान? मेरी समझ से तो नहीं जब तक एक इंसान दूसरे इंसान को इंसान नहीं समझेंगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। रही बात इंसानियत की तो आज के ज़माने में इंसानियत की बात करना यानी एक ऐसी चिड़िया के विषय में बात करने जैसा है जिसकी प्रजाति लुप्त होती जा रही है। जिसका अस्तित्व लगभग खत्म होने को है। और यदि हमें इस चिड़िया को लुप्त होने से बचाना है तो संवेदनाओं को मरने से रोकना होगा। अपनी सोच बदलनी होगी जिसकी शुरुवात सबसे पहले खुद के घर से अर्थात खुद से ही करनी होगी क्योंकि अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसलिए इस विषय पर सामूहिक रूप से चर्चा करना और इस समस्या के समाधान हेतु आगे आना और मिलजुल कर प्रयास करना ही इस परंपरा या इस कुप्रथा का तोड़ साबित हो सकता है इसलिए "जागो इंसान जागो" अपने दिमाग ही नहीं बल्कि अपने दिल के दरवाजे भी खोलो। क्योंकि भले ही ईश्वर ने दिमाग को दिल के ऊपर का दर्जा दिया हो, मगर तब भी दिमाग के बजाय दिल से लिए हुए फ़ैसले ही ज्यादा सही साबित होते है।